श्री गणेश चालीसा भगवान गणेश की महिमा का वर्णन करने वाला एक स्तोत्र है, जो भक्तों के लिए अत्यंत शुभ और मंगलकारी माना जाता है।
भगवान गणेश को विघ्नहर्ता, बुद्धि और ज्ञान के दाता तथा शुभ कार्यों के आरंभकर्ता के रूप में पूजा जाता है। हिंदू धर्म में किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले गणपति वंदना आवश्यक मानी जाती है, ताकि सभी बाधाएँ दूर हों और कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण हो।
Ganesh chalisa में चालीस चौपाइयों के माध्यम से भगवान गणेश के दिव्य स्वरूप, उनकी कृपा, गुण और लीलाओं का सुंदर वर्णन किया गया है।
इसे पढ़ने और स्मरण करने से मन की शांति, समृद्धि और सफलता प्राप्त होती है। भक्तगण इसे श्रद्धा एवं भक्ति भाव से गाकर श्री गणेश जी की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
|| श्री गणेश चालीसा ||
|| दोहा ||
जय गणपति सद्गुण सदन, कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥
|| चौपाई ||
जय जय जय गणपति गणराजू।
मंगल भरण करण शुभ काजू॥
जय गजबदन सदन सुखदाता।
विश्व विनायक बुद्धि विधाता॥
वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन।
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥
राजित मणि मुक्तन उर माला।
स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं।
मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥
सुन्दर पीताम्बर तन साजित।
चरण पादुका मुनि मन राजित॥
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता।
गौरी ललन विश्व-विख्याता॥
ऋद्धि-सिद्धि तव चँवर डुलावे।
मूषक वाहन सोहत द्वारे॥
कहौं जन्म शुभ कथा तुम्हारी।
अति शुचि पावन मंगलकारी॥
एक समय गिरिराज कुमारी।
पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा।
तब पहुंच्यो तुम धरि द्विज रूपा॥
अतिथि जानि कै गौरी सुखारी।
बहु विधि सेवा करी तुम्हारी॥
अति प्रसन्न ह्वै तुम वर दीन्हा।
मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥
मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला।
बिना गर्भ धारण यहि काला॥
गणनायक गुण ज्ञान निधाना।
पूजित प्रथम रूप भगवाना॥
अस कहि अन्तर्धान रूप ह्वै।
पालना पर बालक स्वरूप ह्वै॥
बनि शिशु रुदन जबहि तुम ठाना।
लखि मुख सुख नहिं गौरी समाना॥
सकल मगन सुख मंगल गावहिं।
नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं॥
शम्भु उमा बहु दान लुटावहिं।
सुर मुनि जन सुत देखन आवहिं॥
लखि अति आनन्द मंगल साजा।
देखन भी आए शनि राजा॥
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं।
बालक देखन चाहत नाहीं॥
गौरी कछु मन भेद बढ़ायो।
सनि सन्देह बहुत समझायो॥
पुनि शनि हरि दृष्टि जब डारी।
कांचन थाल बालक सिर भारी॥
कटा शीश गिरि भूमि निहारा।
अति विकल ह्वै पितु सूत पुकारा॥
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो।
कटि मृदुल कर शीश जोडायो॥
बालक शीश गजासुर वध्यो।
धारण करि शंकर तब दयो॥
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हा।
प्रथम पूज्य बुद्घि निधि विधि दीन्हा॥
बुद्धि परीक्षा जब जग लीजै।
पहिले तुम्हरी पूजा कीजै॥
देत साक्षी वेद पुराना।
पूजित प्रथम रूप भगवाना॥
मार्कण्डेय ऋषि सुमिरन कीन्हा।
दुष्ट क्रिया तिन्ह तुरत ही छींहा॥
अहिरावण रघुनाथ पठायो।
रघुपति बंधन बहुत सतायो॥
दुर्गम काल मेघ जब छायो।
कहौं कौन बिधि संकट टारो॥
तुरत कपि सुत संकट हरना।
अंगद के संग लंका जरना॥
लक्ष्मण मूर्छा जबहि उपाई।
संजिवन हरि लाए सुहाई॥
रावण रण जब भयउ विकराला।
रघुपति केहि बिधि जीति बिसाला॥
तब हनुमान महाप्रभु जाके।
भयो विजय राम के ताके॥
तुम्हरी महिमा बुद्धि बढ़ाई।
शेष सहस मुख सके न गाई॥
मैं मतिहीन मलीन दुखारी।
करहु कौन विधि विनय तुम्हारी॥
भजत ‘राम सुन्दर’ प्रभुदासा।
लग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा॥
अब प्रभु दया दीन पर कीजै।
अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै॥
|| दोहा ||
श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान।
नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ती गणेश॥